Top FeaturedTop Sliderकहानियॉं

जातिभेद मिटाता रेल का सामान्य डिब्बा और संघ

– लोकेन्द्र सिंह

ट्रेन के सफर में एक बेहद खास बात है, जिसे हमें अपने असल जीवन में भी चरितार्थ करना चाहिए- ट्रेन में जाति का कोई भेद नहीं। सामान्य डिब्बे में तो धन का भी कोई भेद नहीं। सीट खाली है तो हम झट से उस पर बैठ जाते हैं, यह सोचे बिना कि जिससे सटकर बैठना है वह मेहतर भी हो सकता है और चमार भी। वह धोबी भी हो सकता है और कंजर भी। सामान्य डिब्बे में सीट पाने के लिए धन और उसके बल पर हासिल की जाने वाली जुगाड़ भी काम नहीं आती। जो पुरुषार्थ करेगा और जिसके भाग्य में होगी सीट उसी को मिलती है।’

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर और राष्ट्र के महान नायक मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने जीवन का काफी हिस्सा ट्रेनों में गुजारा। इनके लिए एक गीत भी रचा गया है जिसके बोल हैं- गाड़ी मेरा घर है कह कर जिसने की दिन-रात तपस्या… ‘ और वो गीत गुनगुनाने लगे। चॉकलेट रंग का कुर्ता-पाजामा और ऊपर से खादी की सदरी डाल रखी थी, उन बुजुर्ग ने। वे ही अपने सामने बैठे एक युवक से बातें कर रहे थे और फिर ये गीत गुनगुनाने लगे, मनमौजी की तरह। वो श्रीधाम एक्सप्रेस के सामान्य डिब्बे में खिड़की के पास बैठे थे। मैं हबीबगंज रेलवे स्टेशन से गाड़ी में चढ़ा था। भीड़ बहुत ज्यादा तो नहीं थी। मैं सीट तलाश रहा था। उन्होंने यह देखकर इशारे से मुझे अपने पास बैठा लिया। सुकून मिला कि चलो अब ग्वालियर तक करीब साढ़े पांच घण्टे का सफर अखरेगा नहीं। आराम से बैठने लायक जगह मिल गई है।

बाल अधपके थे, करीने से निकाले हुए भी नहीं थे। बेतरतीब बिखरे हुए थे। वैसे बहुत छोटे बाल थे। संभवत: कंघी हो नहीं सकती थी। चेहरा एकदम क्लीन सेव किया हुआ था। अनुभवों की सलवटें भी चेहरे पर नजर आ रही थीं। कुल मिलाकर एक बौद्धिक व्यक्तित्व नजर आ रहा था। उनकी लयबद्ध सुरीली आवाज में गीत, बिना संगीत के भी मधुर लग रहा था। उनकी लय के साथ हृदय खुद-ब-खुद ताल मिला रहा था। आनंद की अनुभूति के साथ मेरा सिर झूम रहा था। उनके गाने पर मेरा यूं आनंदित होना, उन्हें अच्छा लगा।

‘क्या नाम है तुम्हारा? कहां तक जाओगे? ‘ उत्साह के साथ उन्होंने पूछा।

‘सार्थक नाम है मेरा। ग्वालियर तक जाऊंगा। ग्वालियर में घर है मेरा। यहां, भोपाल में नौकरी करता हूं।’ अगले सवाल में उन्होंने जनना चाहा कि मैं क्या नौकरी करता हूं। लेकिन, मैंने उन्हें बताया नहीं कि मैं पत्रकार हूं। ऐसा बताने से सहज बातचीत नहीं हो पाती। कुछ बनावटीपन मुझमें और कुछ सामने वाले में आ जाता है, अकसर यह महसूस किया है। उन सज्जन की अनुभवों की पोटली से कुछ किस्से सुनने का मन था, इसलिए गोल-मोल जवाब दे दिया- ‘कुछ खास नहीं एक प्राइवेट जॉब है।’

थोड़ी और इधर-उधर की जानकारी लेकर उन्होंने बातचीत शुरू कर दी- ‘मेरे युवा साथी। सफर हमें जीवन का पाठ सिखाता है। हमें जीवन के प्रति एक नई समझ और नई दृष्टि देता है। जिंदगी के सफर को समझने में मदद करता है। छोटे-लंबे सफर हमें भीतर से निखारते हैं। समृद्ध बनाते हैं। ये सफर बाहरी दुनिया की खिड़कियां खोलते हैं। दिलों को जोड़ते हैं।’ वे बोलते चले जा रहे थे और मैं मुग्ध होकर सुनता जा रहा था। खिड़की के बाहर कुछ देखने की कोशिश भी कर रहा था, लेकिन अंधकार था। खिड़की के बाहर इन बुजुर्ग की तरह कहीं कुछ उजाले दिख जाते तो मन प्रसन्न हो जाता।

‘देखो, सफर के दौरान कई अजनबी मिलते हैं लेकिन कुछ ही देर में सब परिचित से लगने लगते हैं। हम सब यहां बैठे लोग अब एक-दूसरे को जानने लगे हैं। यूं ही तो बनते हैं दिल के रिश्ते। जिस तरह जिंदगी के लंबे सफर को तय करने के लिए कुछ खास दोस्तों और हमदर्दों की जरूरत होती है वैसे ही एक लंबे सफर को आनंद के साथ पूरा करने के लिए भी दोस्तों की जरूरत होती है। ये अच्छे दोस्त कहां मिलते हैं हमें, यहीं सफर के दौरान। इनका साथ सफर को आसान और मजेदार बना देता है।’ वे आस-पास बैठे लोगों का परिचय कराने लगते हैं। यह भी बताते जाते हैं कि कौन, कहां से बैठा है और कहां तक जाएगा। एक युवक, जो जबलपुर में नौकरी करता है, वह ग्वालियर तक जाएगा, यह जानकारी भी मिल गई। यानी मेरे पड़ाव तक एक सहयात्री वहां था।

‘और मेरे मित्र, सफर हमें उदार बनाता है और हमारी सोच को व्यापक करता है। व्यर्थ की जिन बातों में फंसकर हम अपना जीवन खपा देते हैं, वे बातें सफर में बेमानी लगने लगती हैं। मैंने थोड़ी देर पहले महात्मा गांधी और संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर जी का जिक्र किया था। गांधीजी ने और संघ ने जो काम किया है, वही काम रेल का यह सामान्य डिब्बा करता है। समाज को समरस करने का काम। रेल के सामान्य डिब्बे में महात्मा गांधी और आरएसएस के विचारकों का समरस समाज दिखता है। गांधीजी का जीवन खत्म हो गया, समरस समाज का निर्माण करने में, लेकिन आज तक यह पूरी तरह संभव नहीं हो सका है। हालांकि फर्क तो आया है।’

वे आगे कुछ कहते, मैंने उन्हें टोक दिया। ‘आप संघ की तारीफ कर रहे हैं, लेकिन बहुत से नेता और पत्रकार तो हमेशा संघ को गलत साबित करते हैं। उसके बारे में ठीक-ठीक कोई बोलता नहीं।’

‘उन्होंने संघ को करीब से देखा नहीं है। सुनी-सुनाई बातों से ही उन्होंने अपनी धारणा बना रखी है। संभव है, तुम्हारी भी ऐसी ही धारणा हो। बहरहाल, आरएसएस को वामपंथी साथी और उनके मीडिया कामरेड भले ही सांप्रदायिक ठहराते हों या पुरातनपंथी कहते हों लेकिन समाज को एकरस करने में जितना काम संघ और उसके लोगों ने किया है, शायद आजाद भारत में तमाम विचारक, दलित नेता और दलितों के नाम पर विदेशों से रुपया मांगने वाले एनजीओ भी नहीं कर सके होंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सात वर्ष के कार्यकाल में ही वर्ष 1932 के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ क्षेत्र में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता की अनुभूति वर्ष 1934 के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी। संघ शिविर में भोजन के लिए एक ही टाटपट्टी पर एकसाथ बैठे स्वयंसेवकों को देखकर महात्मा गांधी ने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से पूछा था कि इनमें से छोटी जाति के कितने लोग हैं। इस पर डॉ. हेडगेवार ने कहा आप इन्हीं लोगों से पूछ लीजिए। महात्मा गांधी ने स्वयंसेवकों से पूछा कि आप लोगों में से कथित छोटी जाति के कितने लोग संघ के शिविर में आए हैं? महात्मा जी को कोई उत्तर नहीं मिला। तब डॉ. हेडगेवार ने उन्हें बताया कि यहां समरस समाज की नींव रखी जाती है। संघ में सब स्वयंसेवक हैं, कोई ऊंची-नीची जाति का नहीं। ठीक इसी तरह रेल के सामान्य डिब्बे में कोई भेदभाव नहीं। जातिपंथ की फ्रिक नहीं। छूने से धर्म और जाति भ्रष्ट होने का भय नहीं। यहां सब मनुष्य हैं। तसरीफ टिकाने के लिए सीट के जरा-से कोने का संघर्ष है। अदद कोने को पाने के लिए सब भाई हैं। भाई जरा-सा बैठने दोगे, प्लीज। यही निवेदन करते हैं। यहां जाति पूछकर जगह नहीं मांगते।’ संघ के कार्य और उद्देश्य को तर्क एवं तथ्य के साथ बताने के साथ ही वे वापस सामान्य डिब्बे में आ गए। सामान्य डिब्बे की महत्ता साबित करने लगे। साथ में संघ की भी।

उन्हें संघ की तारीफ करते देखा तो खयाल आया कि ये संघ के कोई प्रचारक हैं या फिर संघ परिवार के किसी संगठन के नेता होंगे। संघ से खाद-पानी पाने वाले राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी तो हो सकते हैं। समाज में समरसता लाने के लिए कभी किसी अखबार, पत्रिका और टीवी चैनल पर आरएसएस की तारीफ में कोई रिपोर्ट देखी नहीं। हमेशा यह ही पढ़ा-देखा कि आरएसएस सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे की गतिविधियों में शामिल रहता है। लेकिन, ये सज्जन तो आरएसएस की इतनी तारीफ कर रहे हैं, मानो संघ तो बहुत महान है। समाज को जोडऩे वाला संगठन है, तोडऩे वाला नहीं। वैसे मैं भी आरएसएस को राष्ट्राभिमानी संगठन मानता हूं। जिसके स्वयंसेवकों के खून में अपनी परम्पराओं, संस्कृति और देश के प्रति खूब भक्ति है। अपनी शंका के समाधान के लिए मैंने सीधे उनसे प्रश्र किया- ‘आप संघ के कार्यकर्ता हैं? ‘

संघ के प्रति प्रेम और उनकी जानकारी देखकर मुझे सौ फीसदी भरोसा था कि ये सज्जन संघ के कर्मठ स्वयंसेवक या कार्यकर्ता होंगे। उनके जवाब ने मुझे गलत साबित कर दिया, लेकिन संघ की सज्जनता के प्रति मेरे भरोसे को मजबूत कर दिया। उन्होंने कहा-‘मैं तो आम्बेडकरवादी हूं। वाल्मीकि समाज का आदमी हूं। संघ के लोग मेरे घर आते हैं, चाय पीते हैं और खाना भी साथ में बैठकर खाते हैं। और हां, संघ के स्वयंसेवक अपने घरों में भी बड़े प्रेम से बैठाते हैं।’

हम स्टेशन-दर-स्टेशन पार करते जा रहे थे और वे सज्जन एक-एक अनुभव सुनाते जा रहे थे। हम और संघ एक-एक पड़ाव पार करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते हुए प्रतीत हुए।

Related Articles

One Comment

  1. बहुत अच्छा संस्मरण. सच कहा. जिसको वास्तविक जनजीवन देखना हो उसे जनरल बोगी में यात्रा करनी चाहिए. मैं ने भी जनरल बोगी विषयक ऐक लेख लिखा था.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button